विधारा एक लता है जो की पूरे भारतवर्ष में पायी जाती है। इसे हिंदी में समुद्र शोख, बांसा, घबेल, समुद्र पात, घावपात, घावबेल और बिधारा के नाम से जाना जाता है। आयुर्वेद में इसे वल्लरी, वृद्धदारु, वृद्धदारुक, वृष्यगंधिका, सुपुष्पिका, बसंतरी, तथा अंग्रेजी में बेबी रोजवुड, एलीफैंट क्रीपर कहते हैं। यह मुख्य रूप से गर्म प्रदेशों में पायी जाती है। इसे बगीचों, उद्यानों में भी सजावट के रूप में लगाया जाता है।
विधारा एक औषधीय वनस्पति है। आयुर्वेद में इसका एक रसायन औषधि की तरह बहुत प्रयोग किया जाता है। विधारा की जड़ों को तंत्रिका तंत्र के लिए टॉनिक nervine tonic, वाजीकारक aphrodisiac और बलवर्धक दवाओं में बहुतायात से इस्तेमाल किया जाता है। इसे अन्य वाजीकारक, बल-वीर्य-शुक्रल द्रव्यों जैसे की अश्वगंधा, शतावरी, तालमखाना आदि के साथ मिलाकर पुरुषों के लिए अच्छी औषधियों का निर्माण किया जाता है।
विधारा का सेवन शरीर में वीर्य की वृद्धि करता है। यूनानी दवाओं में इसके बीजों को अनैच्छिक वीर्य गिरने spermatorrhoea और सेक्स टॉनिक की तरह प्रयोग किया जाता है। यह एक वात शामक औषधि है और वात रोगों जैसे की गठिया, रूमेटिज्म, शीघ्रपतन आदि में अच्छे परिणाम देती है। यह मुख्य रूप से मानसिक रोगों, तंत्रिका तंत्र के रोगों rheumatism, diseases of the nervous system और वात-कफ रोगों की औषधि है।
सामान्य जानकारी
- विधारा की लता पर सफ़ेद रोयें और होते हैं। काण्ड मज़बूत और सफ़ेद से लगते हैं।
- पत्ते हृदयाकार और आठ से तीस सेंटीमीटर व्यास के होते हैं। पत्तों के पीछे के पृष्ठ पर सफ़ेद रोयें होते हैं।
- पुष्प व्यास में दो-तीन इंच लम्बे होते हैं। इनका आकार घंटी के जैसा होता है। पुष्पों का रंग बाहर से सफ़ेद और अन्दर से गुलाबी जामुनी होता है।
- इसके फल गोल होते हैं। कच्चे फल हरे व पकने पर पीले धूसर होते हैं।
- पके बीज जब फट जाते हैं तो उनमें से तीन धार वाले सफ़ेद-भूरे बीज निकलते हैं।
- वर्षा से सर्दियों तक इसमें फूल आते है और इसके बाद इसमें फल लगते हैं।
- वानस्पतिक नाम: अर्जेरिया नर्वोसा, अर्जेरिया स्पेसियोसा
- कुल (Family): कॉनवॉलवूलेसीआए
- औषधीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल भाग: जड़, पत्ते और बीज
- पौधे का प्रकार: काष्ठीय लता
- वितरण: पूरे भारत में
- पर्यावास: भारत के गर्म पर्णपाती वनों में, बगीचों में
विधारा के स्थानीय नाम / Synonyms
- संस्कृत: Vriddhadaruka, Vriddhadaru, Vriddhadaraka, Bastantri, Sthavira, Sthaviradaru, Atarunadaru, Samudrashosha, Vridhadaru, Antaha Kotarapushpi, Chagalantri वृद्धदारुक, आवेगी, छगन्त्री और इंश्यगन्धिका
- हिन्दी: Samandar-kaa-paat, Samundarsosh, Ghaavapattaa, Vidhaaraa
- अंग्रेजी: Elephant Creeper
- बंगाली: Bijataadaka, Bridhadarak बिचतारक, बीज ताड़क, गुगुली
- गुजराती: Samudara Sosha, Varadhaaro, Shamadrasosh
- कन्नड़: Samudrapala, Samudraballi चन्द्रपाद
- मलयालम: Samudra Pacchha, Samudra-Pala, Marikkunn Marututari
- मराठी: Samudrashok
- उड़िया: वृद्धोतोरको, मुंडानोई
- तमिल: Ambgar, Samuddirapacchai समुद्धिरपच्छदू
- तेलुगु: Samudrapaala
- उर्दू: Samunder sokh, Samandarotha, Samandar shokh
- खासी: जतप मासी
विधारा का वैज्ञानिक वर्गीकरण Scientific Classification
- किंगडम Kingdom: प्लांटी Plantae – Plants
- सबकिंगडम Subkingdom: ट्रेकियोबाईओन्टा Tracheobionta संवहनी पौधे
- सुपरडिवीज़न Superdivision: स्परमेटोफाईटा Spermatophyta बीज वाले पौधे
- डिवीज़न Division: मैग्नोलिओफाईटा Magnoliophyta – Flowering plants फूल वाले पौधे
- क्लास Class: मैग्नोलिओप्सीडा Magnoliopsida – द्विबीजपत्री
- सबक्लास Subclass: एस्टेरिडए Asteridae
- आर्डर Order: सोलेनेल्स Solanales
- परिवार Family: कॉनवॉलवूलेसीआए Convolvulaceae
- जीनस Genus: अर्जेरिया Argyreia
- प्रजाति Species: अर्जेरिया नर्वोसा Argyreia nervosa (Burm. f.) Bojer – एलीफैंट क्रीपर
दूसरे लैटिन पर्याय
- अर्जिरिया स्पेसियोसा Argyreia speciosa (Burm. f.) Bojer
- कोन्वोल्वुलस नर्वोसस Convolvulus nervosus Burm. f.
- कोन्वोल्वुलस स्पेसियोसस Convolvulus speciosus L. f.
- रिविया नर्वोसा Rivea nervosa (Burm. f.) Hallier f.
विधारा जड़ के आयुर्वेदिक गुण और कर्म
विधारा की जड़ स्वाद में कटु, कड़वी,कषाय गुण में हलकी है। स्वभाव से यह गर्म है और मधुर विपाक है। यह उष्ण वीर्य है। वीर्य का अर्थ होता है, वह शक्ति जिससे द्रव्य काम करता है। आचार्यों ने इसे मुख्य रूप से दो ही प्रकार का माना है, उष्ण या शीत। उष्ण वीर्य औषधि वात, और कफ दोषों का शमन करती है। इनके सेवन से भोजन जल्दी पचता (आशुपाकिता) है।
- रस (taste on tongue): कटु, तिक्त, कषाय
- गुण (Pharmacological Action): लघु, स्निग्ध
- वीर्य (Potency): उष्ण
- विपाक (transformed state after digestion): मधुर
कटु रस जीभ पर रखने से मन में घबराहट करता है, जीभ में चुभता है, जलन करते हुए आँख मुंह, नाक से स्राव कराता है जैसे की सोंठ, काली मिर्च, पिप्पली, लाल मिर्च आदि। कटु रस तीखा होता है और इसमें गर्मी के गुण होते हैं। गर्म गुण के कारण यह शरीर में पित्त बढ़ाता है, कफ को पतला करता है। यह पाचन और अवशोषण को सही करता है। इसमें खून साफ़ करने और त्वचा रोगों में लाभ करने के भी गुण हैं। कटु रस गर्म, हल्का, पसीना लानेवाला और प्यास बढ़ाने वाला होता है। यह रस कफ रोगों में बहुत लाभप्रद होता है। गले के रोगों, शीतपित्त, अस्लक / आमविकार, शोथ रोग इसके सेवन से नष्ट होते हैं। यह क्लेद/सड़न, मेद, वसा, चर्बी, मल, मूत्र को सुखाता है।
तिक्त रस, वह है जिसे जीभ पर रखने से कष्ट होता है, अच्छा नहीं लगता, कड़वा स्वाद आता है, दूसरे पदार्थ का स्वाद नहीं पता लगता, जैसे की नीम, कुटकी। यह स्वयं तो अरुचिकर है परन्तु ज्वर आदि के कारण उत्पन्न अरुचि को दूर करता है। यह कृमि, तृष्णा, विष, कुष्ठ, मूर्छा, ज्वर, उत्क्लेश / जी मिचलाना, जलन, समेत पित्तज-कफज रोगों का नाश करता है।
कषाय रस जीभ को कुछ समय के लिए जड़ कर देता है और यह स्वाद का कुछ समय के लिए पता नहीं लगता। यह गले में ऐंठन पैदा करता है, जैसे की हरीतकी। यह कफ को शांत करता है। इसके सेवन से रक्त शुद्ध होता है। यह सड़न, और मेदोधातु को सुखाता है। यह आम दोष को रोकता है और मल को बांधता है। यह त्वचा को साफ़ करता है।
विपाक का अर्थ है जठराग्नि के संयोग से पाचन के समय उत्पन्न रस। इस प्रकार पदार्थ के पाचन के बाद जो रस बना वह पदार्थ का विपाक है। शरीर के पाचक रस जब पदार्थ से मिलते हैं तो उसमें कई परिवर्तन आते है और पूरी पची अवस्था में जब द्रव्य का सार और मल अलग हो जाते है, और जो रस बनता है, वही रस उसका विपाक है।
मधुर विपाक, भारी, मल-मूत्र को साफ़ करने वाला होता है। यह कफ या चिकनाई का पोषक है। शरीर में शुक्र धातु, जिसमें पुरुष का वीर्य और स्त्री का आर्तव आता को बढ़ाता है। इसके सेवन से शरीर में निर्माण होते हैं।
कर्म Principle Action
- विषहर : द्रव्य जो विष के प्रभाव को दूर करे।
- कफहर: द्रव्य जो कफ को कम करे।
- वातहर: द्रव्य जो वातदोष निवारक हो।
- पित्तकर: द्रव्य जो पित्त को बढ़ाये।
- रसायन: द्रव्य जो शरीर की बीमारियों से रक्षा करे और वृद्धवस्था को दूर रखे।
- वृष्य: द्रव्य जो बलकारक, वाजीकारक, वीर्य वर्धक हो।
- बल्य: द्रव्य जो बल दे।
- अधोभागहर: द्रव्य जो विरेचन करे।
- मेद्य: द्रव्य जो बुद्धि के लिए उत्तम हो।
- रुच्य: द्रव्य जो भोजन में रूचि बढ़ाये।
- स्वर्य: द्रव्य जो स्वर को अच्चा करे।
- कंठ्य: द्रव्य जो गले के लिये अच्चा हो।
- अस्थिसंधानकारी: द्रव्य जो हड्डियों को मज़बूत करे।
- कान्तिकर: द्रव्य जो कान्ति दे।
विधारा को आयुर्वेद में निम्न रोगों में प्रयोग किया जाता है:
- गुल्म Gulma
- मूत्रकृच्छ Mutrakricchra
- अरुचि Aruchi
- हृदय शूल Hridruja
- गैस anaha
- अर्श Arsha
- कोलिक shula
- वातरोग Vataruja
- वातरक्त Vatarakta
- आमवात amavata
- शोष shopha
- मेह रोग Meha
- कृमि Krimi
- पांडु Pandu
- क्षय Kshaya
- कास Kasa
- उन्माद Unmada
- मिर्गी Apasmara
- विशुचिका Visuchi
- हाथीपाँव shlipada
दवा के रूप में शरीर पर असर Biomedical Action
- शरीर में निर्माण करने वाला Anabolic
- पीड़ाहर एनाल्जेसिक Analgesic
- आक्षेपनाशक Antispasmodic
- कामोद्दीपक Aphrodisiac
- स्निग्घकारक प्रदाह-शामक Emollient
- भ्रान्तिजनक Hallucinogen
- टॉनिक Tonic
विधारा के औषधीय उपयोग Medicinal Uses of Vidhara in Hindi
विधारा को आयुर्वेद में टॉनिक और आयुष्य औषधि माना गया है। यह बुद्धिवर्धक, कान्तिवर्धक, वीर्यवर्धक, कामोद्दीपक, अग्निदीपक, गर्म, चरपरी, कसैली, पौष्टिक, और वात-कफ रोग नाशक है। इसके सेवन से खांसी, प्रमेह, वातरक्त, आमवात, शीघ्रपतन, उपदंश आदि रोग दूर होते है। विधारा के पत्तों की असम और बिहार में सब्जी भी बनाई जाती है। इसके बीजों को यूनानी दवाओं में बलवर्धक औषधि की तरह प्रयोग किया जाता है।
इसके पत्तों को घावबेल तथा घाव पात कहते हैं क्योंकि यह घावों को जल्दी ठीक करता है।
गठिया gout
विधारे का क्वाथ, शतावरी की जड़ के चूर्ण के साथ लिया जाता हैं
रूमेटिज्म, वातरक्त Rheumatism
- विधारा की जड़, अश्वगंधा की जड़, सोंठ और मिश्री को बराबर मात्रा में लेकर पीस लें। इस चूर्ण को पांच – दस ग्राम की मात्रा में गर्म पानी के साथ लें।
- पत्तों अथवा जड़ का पेस्ट प्रभावित स्थान पर लगाकर, मुलायम सूती कपड़े से बाँधा जाता है।
बुद्धि – स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए Intelligence promoting
विधारे की जड़ के चूर्ण को शतावरी के रस की सात भावना देकर सुखाकर जो चूर्ण बनता है उसे एक दो चम्मच की मात्रा को नियमित घी के साथ बनाका चाट कर लिया जाता है।
उपदंश Syphilis
विधारे और त्रिफला का क्वाथ बनाकर पीने से उपदंश में लाभ होता है।
श्लीपद filaria
- श्लीपद में विधारे की जड़ का चूर्ण कांजी के साथ पिया जाता है।
- 2 ग्राम बीजों के चूर्ण को 7-14 ml गौ मूत्र के साथ लें।
जलोदर dropsy
विधारे की जड़ का चूर्ण 3 ग्राम की मात्रा में लेते हैं।
मूत्रकृच्छ Strangury
इसके पत्तों को पानी में भिगो देते हैं और इस पानी में मिश्री मिलाकर पीते हैं।
हाइड्रोसील Hydrocele
पत्तों का पेस्ट प्रभावित स्थान पर लगाकर, मुलायम सूती कपड़े से बाँधा जाता है। ऐसा एक सप्ताह में तीन बार करते हैं।
घाव, कटना wounds, cuts
विधारा की पत्तियों (maturative and absorptive) को घाव पर पुल्टिस emollient poultices बनाकर लगाया जाता है।
सेप्टिक घाव, अल्सर आदि से पस निकालने के लिए, गैंग्रीन gangrene
- विधारा के पत्तों के रस से घाव धोएं।
- विधारा के पत्तों का पेस्ट बाहरी रूप से लगायें।
फोड़े, पस वाले घाव, एब्सेस boils, abscess
विधारा के पत्तों पर एरंड तेल लगायें और गर्म क्र लें। इसे प्रभावित स्थान पर पट्टी की सहायता से बाँध लें।
खूनी पेचिश, अल्सरेटिव कोलाइटिस, मासिक में अधिक रक्तस्राव
विधारा के दो-तीन पत्ते लेकर रस निकाल लें और एक कप पानी में मिला लें। इसे सुबह खाली पेट पी लें।
बलवर्धन Strength increasing
विधारा के तने के चूर्ण, तालमखाना के बीजों का चूर्ण और अश्वगंधा की जड़ का चूर्ण बराबर मात्रा में मिलाकर, 5 ग्राम की मात्र में लेने से शरीर में बल की वृद्धि होती है।
वाजीकारक aphrodisiac
विधारा जड़ का चूर्ण तीन से पांच ग्राम की मात्रा में लें।
वीर्य का पतलापन, कम शुक्राणु low sperm count
विधारा की जड़, असंगध एवं शतावर समान मात्रा में लेकर, पीस कर चूर्ण बनालें। इस चूर्ण को 6 ग्राम की मात्रा में गाय के दूध के साथ, सुबह और शाम लें। यह प्रयोग वीर्य को गाढ़ा करता है और शुक्राणुओं की संख्या बढ़ाता है।
वीर्य की कमी
बीजों का पाउडर एक – दो ग्राम की मात्रा में 5 ग्राम घी के साथ लें।
विधारा की औषधीय मात्रा
विधारा की साफ की हुई, सुखाई और कपड़छन चूर्ण की हुई जड़ों को लेने की औषधीय मात्रा 3-5 ग्राम है।
इसके तने / काण्ड के चूर्ण को भी इसी मात्रा में लिया जा सकता है।
बीजों को आंतरिक प्रयोग से पहले शुद्ध किया जाता है। शुद्ध करने के लिए अपामार्ग के रस अथवा नमक के पानी में भिगोते है और फिर धूप में सुखाते हैं। बीजों को बहुत ही कम मात्रा में लेते हैं क्योंकि यह नारकोटिक होते हैं। बीजों को लेने की मात्रा आधा से एक ग्राम है।
सावधनियाँ/ साइड-इफेक्ट्स/ कब प्रयोग न करें Cautions/Side-effects/Contraindications
- यह पित्त को बढ़ाता है। इसलिए पित्त प्रकृति के लोग इसका सेवन सावधानी से करें।
- अधिक मात्रा में सेवन पेट में जलन, एसिडिटी, आदि समस्या कर सकता है।
- शरीर में यदि पहले से पित्त बढ़ा है, रक्त बहने का विकार है bleeding disorder, हाथ-पैर में जलन है, अल्सर है, छाले हैं तो भी इसका सेवन न करें।
- आयुर्वेद में उष्ण चीजों का सेवन गर्भावस्था में निषेध है। इसका सेवन गर्भावस्था में न करें।
- बीजों में एक narcotic hallucinogen, पाया जाता है जो ज्यादा मात्रा में लेने से हैंगओवर, धुंधला दिखाई देना, कब्ज, जड़ता, मतली, चक्कर आदि कर सकता है।
इसे वायु गोला में भी प्रयोग करते है
अत्युत्तम जानकारी दी गयी है ।