पिठवन हर्ब के फायदे, नुकसान, उपयोग विधि

पिठवन का स्वाद कड़वा, कसैला तथा तासीर गर्म होती है। यह जलन, बुखार, अतिसार, रक्त-अतिसार, पेचिश, खूनी बवासीर, ज्यादा प्यास , उल्टी, सांप-बिच्छू के काटने पर प्रयोग होता है। इसके सेवन से खासी और कफ नष्ट होता है।

पृश्निपर्णी को संस्कृत में पृथकपर्णी, चित्रपर्णी, अहिपर्णी, सिंहपुच्छी, धावनी, गुहा के नाम से जाना जाता है। यह गुडूच्यादी वर्ग की औषधि है और दशमूल में लघुपंचमूल (शालपर्णी, बृहती , कंटकारी, गोक्षुर, एरंड और पृश्निपर्णी) की पांच जड़ों में से एक है। हिंदी, मराठी में इसे पिठवन बंगाली में शकरजटा, गुजराती में पिलो समेरवो आदि नामों से जाना जाता है।

पिठवन, एक क्षुप जाति का पौधा है। इसके पौधे की उंचाई करीब दो-ढाई फीट होती है। इसकी बहुत सी डालियाँ जमीं पर फैली हुई होती हैं। इसके पत्ते लम्बे और फूल सफ़ेद-नीले जटायुक्त होते हैं। औषधि की तरह पूरे पेड़, जड़, पत्तों का प्रयोग होता है।

लैटिन नाम: उरेरिया लोगोपोइडिस और उरेरिया पिक्टा Uraria picta और Uraria picta

पृश्निपर्णी के पांच प्रकार

आयुर्वेद में बताये पृश्निपर्णी के रूप में प्रयोग पौधे पांच प्रकार के है।

१: इसके पत्ते गोल, छोटे रोमदार, रंग में हरे, पकने पर भूरे होते हैं। दाने कालीमिर्च की तरह और चिपचिपे होते हैं। यह सिंहपुच्छ की तरह फैलते हैं। पत्ते तीन की संख्या में निकलते हैं। फूल आश्विन कार्तिक में आते हैं।

२: इसके पत्ते में सफ़ेद गोल आकृति होती है। इसे चित्रपर्णी कहते हैं। इसके फल बड़े अरहर की दाल की बराबर चौड़े, लाल-भूरे होते हैं।

३ और ४: फलों का अंतर होता है जिनकी सियार या सिंहपुच्छ की आकृति होती है।

५: इसके पत्ते भूरे से होते हैं। शुरू में तीन पत्ते लगते हैं, जो बड़े होते हैं बाद के पत्ते छोटे होते हैं। पत्ते हरे और भूरे रंग के मिश्रित होते हैं। इसमें फलियाँ बड़ी और छोटी लगती हैं।

पृश्निपर्णी के क्षुप गीली भूमि में नहीं पाए जाते। इसकी डालियों ऊँची न होकर जमीन पर फैलती हुई लगती हैं। कई डालियों के मिल जाने पर गुफा जैसा गण प्रदेश बन जाता है जिस कारण इसका एक नाम \’गुहा\’ भी है। पृश्निपर्णी के फूल लम्बी डंडी के आगे हिस्से पर होते हैं जो की देखने पर सियार की पूँछ जैसे दीखते है। इस कारण इए क्रोष्टुपुच्छिका, श्रृगालविन्ना भी कहा जाता है।

पृश्निपर्णी के स्थानीय नाम

  • Ayurvedic: Prishniparni, Prithakparni, Simhapushpi, Kalashi, Dhaavani, Guhaa, Chitraparni
  • Siddha/Tamil: Oripai
  • Bengali: Salpani, Chhalani, Chakule
  • Gujrati: Pithavan
  • Hindi: Pithavan, Dabra
  • Kannada: Murele Honne, Ondele honne, Prushniparni
  • Malayalam: Orila
  • Marathi: Pithvan, Prushnipamee
  • Oriya: Prushnipamee, Shankarjata
  • Punjabi: Detedarnee
  • Tamil: Oripai
  • Telugu: Kolakuponna

पृश्निपर्णी का आयुर्वेदिक गुण और कर्म

  • पृश्निपर्णी के पूरे पौधे के आयुर्वेदिक गुण इस प्रकार हैं:
  • रस (taste on tongue): मधुर, कटु, अम्ल, तिक्त
  • गुण (Pharmacological Action): लघु, सार
  • वीर्य (Potency):उष्ण,
  • विपाक (transformed state after digestion): मधुर
  • कर्म
  • दीपन, संग्राही (binds stool)
  • त्रिदोषहर और बलवर्धक
  • वृष्य, शोथहर
  • वीर्यवर्धक
  • वमन नाशक
  • रासायन

पृश्निपर्णी का औषधीय प्रयोग | Prishparni Medicinal Uses in Hindi

पिठवन का स्वाद कड़वा, कसैला तथा तासीर गर्म होती है। यह जलन, बुखार, अतिसार, रक्त-अतिसार, पेचिश, खूनी बवासीर, ज्यादा प्यास , उल्टी, सांप-बिच्छू के काटने पर प्रयोग होता है। इसके सेवन से खासी और कफ नष्ट होता है।

इसकी जड़ को ५ ग्राम से लेकर १० ग्राम तक की मात्रा में प्रयोग किया जाता है।

काढ़ा बनाने के लिए, १०-२० ग्राम पूरे पौधे का सूखा पाउडर ४०० ml पानी में उबाला जाता है। जब यह पानी १०० ml रह जाता है, तो काढ़े हो छान कर पिया जाता है।

  1. कफ में इसके काढ़े का प्रयोग अच्छे परिणाम देता है।
  2. फ्रैक्चर होने पर, जड़ का पाउडर ५ ग्राम की मात्रा में २ ग्राम हल्दी के साथ लेना चाहिए। ऐसा १ महीने तक लगातार करना चाहिए।
  3. शरीर में ज़हर की उपस्तिथि में इसके पौधे का रस १०-३० ml की मात्रा में लेना चाहिए।
  4. स्प्लीन/तिल्ली के बढ़ जाने पर पौधे का काढ़ा पीना चाहिए।
  5. बुखार में इसकी जड़ का सेवन करने से लाभ होता है।
  6. आसान प्रसव के लिए, इसकी जड़ों को बाहरी रूप से नाभि, वस्ती और योनि पर इसका लेप किया जाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*